अस्पृश्य बच्चे की जान बचाने के वजह से सावित्रीबाईने खुद की जान खतरे मे डाली ...!!!




आज सारी दनिया केरोना व्हाराससे परेशान है . मेडिकल सायन्सने बहोत सारी उन्नत्ती की है . दवईयोकी खोज हो राही है . मेडिकल टेकनोलॉजी की खोज भी जोर पर है . दुनिया के बहोत सारे देश पुरानी बिमारीयोको जडसे उखाड फेकने मे कामयाब हो गये है . फीर भी कुछ बिमारियोके इलाज के लिए दवाईयोकी खोज बाकी है , उसमे केरोना का भी है . उस वजह से सारी दुनिया सदमे में आ गया है . जब दवाईयोकी खोज नही हुई थी उस वक्त प्लेग जैसे बिमारी से बिमार आदमी के संपर्क आनेसे हो जाता था , उस वक्त सावित्रीबाई फुले ने आठ किलोमीटरवर प्लेगसे बिमार विठ्ठल गायकवाड इस अस्पृश्य महार जाती के लाडके को खुद के पिठपर लेकर असप्ताल मे दाखिल किया था . उस बच्चेकी जान तो बच गई मगर , इसीकी वजहसे सावित्रीबाई फुले प्लेग की शिकार हुई और १० मार्च १८९७ को रात ९ बजे उनका देहांत हो गया .
सावित्रीबाई फुले ३ जनवरी १८३१को महाराष्ट्र के सातारा जिले के नायगांव में जन्मी. ९ साल की उम्र में उनकी शादी हो गई, ज्योतिराव फुले से हुआ. राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले के प्रेरणादायी साथ ने और उनसे मिली शिक्षा ने सावित्रबाई को महिला और समाज की मुक्ति के लिए लड़ने की प्रेरणा दी. उन्होंने १ जनवरी १८४८ को लड़कियों का पहला स्कूल शुरू किया था. लेकिन यह उस दौर में इतना आसान नहीं था. फुले दंपति के इस काम का ब्राह्मणों ने जमकर विरोध किया जो उस वक्त लड़कियों की शिक्षा के खिलाफ थे.
महज १७ साल की उम्र में सावित्री अपने घर से लड़कियों को पढ़ाने के लिए स्कूल जाती थीं. तब विरोधी रास्ते में उन्हें परेशान करने की कोशिश करते थे. वे उन्हें गंदी गालियां देकर अपमानित करते थे, कोई अपने घर से पत्थर फेंककर मारता था तो कोई गोबर फेंककर मारता था. लेकिन फिर भी सावित्रीबाई इन सबका डटकर मुकाबला करते हुए रोज लड़कियों को पढ़ाने के लिए स्कूल जाती थी.
जब मनु के अनुयायियों को लगा कि सावित्रीबाई और ज्योतिबा अब रुकने वाले नहीं है तो उन्होंने ज्योतिबा के पिता गोविंदराव पर यह कहकर दबाव बनाने की कोशिश की कि आप का लड़का धर्म के खिलाफ काम कर रहा है और इसके लिए आपका सामाजिक बहिष्कार हो सकता है, बहिष्कार के दबाव में गोविंदराव ने ज्योतिबा को पाठशाला बंद करने को कहा. जब वे नहीं माने तो गोविंदराव ने उन्हें घर से निकल जाने के लिए कहा. ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने घर छोड़ दिया लेकिन लड़कियों और शूद्रों (आज के ओबीसी, एससी, एसटी) को पढ़ाने का कार्य नहीं छोड़ा. जब इससे भी बात नहीं बनी तो लड़कियों की शिक्षा के विरोधियों ने फुले दंपति की हत्या करने के इरादे से कुछ गुंडो को उनके घर भेजा.
उस वक्त बहुत सारी लड़कियां महज १२- १३ की उम्र में विधवा हो जाती थीं. इसके बाद उनका केशवपन कर उन्हें कुरूप बनाया जाता था. ताकि उनकी तरफ कोई पुरुष आकर्षित न हो सके. लेकिन ऐसी विधवा लड़कियां या महिलाएं भ्रष्ट सोच के पुरूषों के लिए आसान शिकार बन जाती थीं. ऐसे में गर्भवती हुई विधवाओं का समाज बहिष्कार कर देता था और उन पर जुल्म किए जाते थे. पैदा होने वाले बच्चे का भी कोई भविष्य नहीं होता था. ऐसे में उस गर्भवती विधवा के सामने सिर्फ दो पर्याय बचते थे. या तो वह उस बच्चे को मार दे या खुद आत्महत्या कर ले.
इस अमानवीय नरसंहार से महिलाओं को बाहर निकालने के लिए ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने गर्भवतियों के लिए प्रसूतिग्रह शुरू किया जिसका नाम था “बालहत्या प्रतिबंधक गृह” जो उन गर्भवती महिलाओं के लिए उनका घर भी था. सावित्रीबाई ने इस घर को पूरी कुशलता और धैर्य के साथ चलाया. वहां के बच्चों को शिक्षा और उज्वल भविष्य दिया. विधवा केशवपन का विरोध करते हुए सावित्रीबाई ने नाइयों की हड़ताल कराई और उन्हें विधवा केशवपन ना करने के लिए प्रेरित किया. आज भी गर्भवती विधवाओं के लिए ऐसे किसी गृह का निर्माण करना साहस का काम है इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि लगभग १५० साल पहले फुले दंपति का यह कदम कितना साहसिक था.
एक बार ज्योतिबा ने एक गर्भवती महिला को आत्महत्या करने से रोका और उसे वादा किया कि होने वाले बच्चे को वह अपना नाम देंगे. सावीत्रीबाई ने उस महिला का स्वीकार किया और उसे पूरी सहायता दी. कोई भी महिला अपने पति के इस कार्य को शक की नजर से देखकर उस महिला को नकार सकती थी लेकिन सावित्रीबाईने उसे स्वीकारा. बाद में उस महिला से जन्मे बच्चे को सावित्रीबाई और ज्योतिबा ने अपना नाम देकर आपने बच्चे जैसी उसकी परवरिश की . उसका नाम यशवंत रखा . यशवंत को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाया. यशवन्त ने मिलिट्री मे डॉक्टर की नौकरी की .बाद मे सावित्रीबाई फुले के कहनेसे यशवंत ने पुणे के हडपसर में गरिबो की सेवा की . प्लेग के मरिजो की सेवा करते वक्त प्लेग की बिमारी लागने से उनका देहांत हो गया .
छुआछूत, जातिवाद जैसी अमानवीय परंपरा को नष्ट करने के लिए अविरत काम करने वाले ज्योतिबा का सावित्रीबाई ने बराबरी से साथ निभाया. अस्पृश्यों को पानी पीने के लिए खुद के घर का जलाशय दे दिया. किसानों, मजदूरों की समस्याओं को लेकर संघर्ष किया.
ज्योतिबा की मौत के बाद सावित्रीबाई ने उनकी चिता को आग लगाई. यह क्रांतिकारी कदम उठाने वाली सावित्री देश की पहली महिला थी. ज्योतिबा की मृत्यु के बाद सावित्रीमाई ने ज्योतिबा के आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथों में लिया और पूरी कुशलता से उसे निभाया. इसी दौरान उन्होंने “काव्य फुले” और “बावन कशी सुबोध रत्नाकर” नामक ग्रंथों का निर्माण कर समाज का प्रबोधन किया. और वह आधुनिक जगत में मराठी की पहली कवियत्री बनी.
पुणे में१८९७ में फैले प्लेग के दौरान सावित्रीबाई दिन-रात मरीजों की सेवा में लगी थी. उन्होंने प्लेग से पीड़ित गरीब बच्चों के लिए कैंप लगाया था. प्लेग से पीड़ित बच्चे पांडुरंग गायकवाड़ को लेकर जब वह जा रही थीं तो उन्हें भी प्लेग ने जकड़ लिया. १० मार्च १८९७ को रात ९ बजे क्रांतिज्योति सावित्रीबाई का देहांत हो गया. जिंदगी के आखिरी पलों तक यह क्रांतीज्योती ने माँ के जैसी समाज के निचले तपके के लोगोंकी सेवा की . उस वजह से उनको सावित्रीमाई नाम से जाना जाता है . मानवता को प्रस्थापित करने के लिए १८४८ से १८९७ तक सावित्रीबाई लड़ती रही. आज उनकी देहांत तिथी है , याने आज उनकी पुण्यतिथी है , उनकी स्मृती में कोटी कोटी प्रणाम ...!!!

*** यशवंत भंडारे ,
दि .१० मार्च २०२०

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